मन के गुण-धर्म क्या है?

मन में उठने वाली स्फूरण प्रश्न के रूप में एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। यह स्वाभाविक प्रक्रिया द्वन्द्वात्मक वातावरण की वजह से होता रहता है। यह द्वन्द्वात्मक वातावरण, मन की  स्वाभाविक धर्म के रूप में व्यक्त हो जाता है तथा मन का कर्तापन होने पर मन को ही द्वंद का धर्मावलंभी मान लिया गया है।  

मन ही प्रेरणा श्रोत है। मन विचार शक्ति से प्रेरित होता है। 

मन ही  करने वाला है। जैसी मति वैसी गति यही सही सिद्धान्त भी और व्यवहार भी। विचार को ही औषधि के रूप में मानते है।

इस जगत में, मन एक नौका की भाँति  है।  मन बना है। इसकी स्थिति है और समय है। यह घूम रही है, बिना लक्ष्य के। इस नौका में भटकाव है। जिस ओर की हवा चलती है। यह उस ओर चल देती है। 


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