मन के संदर्भ में प्राच्य विद्वानों के शोध अनुभव एवं विचार

पिछले लेख में, हम लोग तीन प्रमुख पाश्चात्य विद्वानों के मन पर किये गये शोध द्वारा योगदान, अनुभव एवं विचार से अवगत हुये। साथ में, यह भी जाना कि मन का उद्धव मानसिक अवस्था के सहज-भाव में होता है। यह भाव मन के सत्य को प्रकट करता है। तीन धड़कन ताल पर मन कार्य करता है। मन के द्वारा सोच के पैटर्न का पता चलता है। मन की सोच का पैटर्न मन के कार्य को बताता है। मन का कार्य पल पल हर पल निरंतर चलता रहता है। यह भी पता चलता है कि मन की सोच का पैटर्न वर्तुल (circular) होता है। या गोलाई लिये होता है।

इस लेख में, हम लोग सात प्राच्य विद्वानों के मन पर किये गये शोध द्वारा योगदान, अनुभव एवं विचार का वर्णन एवं व्याख्या करके मन को विद्वानों के ज्ञान के माध्यम से जानने और समझने की कोशिश करेंगे। . 

1. कपिल मुनि (1000 ई०पू०) साँख्य दर्शन के मुख्य विद्वान है। साँख्य शब्द की उत्पत्ति 'संख्या' शब्द से हुई है। 

इस शब्द  का अर्थ है- sensing and counting अर्थात सोचना और गिनना है। मन प्रकृति का अंश है। तीन गुणो की साम्यावस्था को प्रकृति कहते हैं। प्रकृति के तीन गुण है- तम, सत और रज है। ये तीन गुण मन कैसे कार्य करता है? इस मन के क्रिया को बताता है या explain करता है।

2. महर्षि वेद व्यास (1900 ई०पू०) महाभारत ग्रंथ के रचयिता है। इन्होने 'गीता' जो महाभारत खण्ड का एक भाग है। इसमें कृष्ण-अर्जुन संवाद के माध्यम सै'मन' के भिन्न-भिन्न पहलुओं पर व्याख्या प्रस्तुत किया है। मन की व्याख्या से विभिन्न प्रश्नों का उत्तर प्राप्त होता है। मन के तीन आधार स्तम्भ है- बुद्धी, चित और अहंकार (logic, memory and identity) है। तदोपरांत, वेदव्यास जी ने मन को सम/शांत या योग में लाने और रखने के लिये तीन विधि बतायी है - ज्ञान, भक्ति और कर्म के द्वारा सम करना और 'सहजभाव'में स्थापित करके अंत: तथा बाह्य जगत में जीवन जीने की कला से अवगत कराया है।

3. महर्षि कणाद (७०० ई०पू०) ने वैशेषिकसूत्र में बताया कि 'प्रत्यक्ष-ज्ञान' मन के द्वारा इन्द्रियों और आत्मा के सहयोग या संयोग होने पर होता है। वायु की तरह मन एक द्रव्य है और नित्य है। मन प्रति शरीर एक है अर्थात भिन्न-भिन्न शरीरों में भिन्न-भिन्न है। तदोपरान्तु, कणाद ऋषि ने मन एक द्रव्य है और मन नित्य है। महर्षि ने मन एक द्रव्य है, इस संदर्भ में, विचार व्यक्त करते हुये बताया कि मन के आठ गुण है- संख्या, परिमाण, पृथक्त्व/संयोग, खण्ड-खण्ड (विभाग), परत्व, अपस्त, और संस्कार transformation) है। 

4. महर्षि गौतम (वैदिक काल) ने 'न्याय-दर्शन' के द्वारा मन के बारे में बताया है। न्याय दर्शन दर्शन का छठा प्रमेय मनस है। मनुष्य का मन सुख या दुख का कारण है। मन अतिसूक्ष्म द्रव्य है। यह एक शरीर में एक ही होता है। विभिन्न पंच इन्द्रियों का संयोग मन से होता है। मन आत्मा के साथ अंतः हृदय में वास करता है। मन का सीधा प्रत्यक्ष दर्शन नहीं होता है। मन के कृत्य (function) द्वारा मन को अनुमानित कर सकते है। मन के कृत्य इस प्रकार है- स्मरण, अनुमान, शाब्दिक या गाविक अनुभूति, संशय या शंका या संदेह, सहज-ज्ञान या सहज बोध, स्वप्न, चिन्तन या परिकल्पना या अटकलबाजी, आंतरिक धारणा (सुख-दुख, इच्छा, क्लेश) है। इन आठ प्रकार के कृत्यों के द्वारा मन का होना, सत्यापित होता है। गौतम ऋषि के बताया कि मन एक विशिष्ठ इंद्रिय है। यह इंद्रिय अन्य पंच इंद्रियों से भिन्न है। पंच इन्द्रियों की उपस्थिति रहते हुये भी मनसिक कृत्य की अनुभूति एक बिन्दु समय में होता है। मन का कृत्य एकात्मक ज्ञान का सत्य बोध कराता है। मन आत्मा और पंच इंद्रियों के बीच मध्यस्था करता है। मन से ही अंतःअवस्था के विचार, अनुभूति और इच्छाओं का बोध होता है। मन आत्मा के निकट 'हृदय' में वास करता है। यह अनुभूति मन से ही होती है। 

5. महर्षि पतंजलि (200 ई. पूर्व) ने बताया कि जब मन सम या समत्व या समाधि में आ जाता है।तब चित की समस्त वृत्तियों का निरोध हो जाता है। मन को सम-भाव में लाने के लिये अभ्यास, वैराग्य और ध्यान मुख्य साधन है। इस मन के योग के दर्शन को पतंजलि योग दर्शन कहते हैं। 

6. महर्षि जैमिनि (3000 ई.पू.), पूर्व मीमांसा दर्शन के रचयिता है। उन्होने बताया कि शब्द और अर्थ में नित्य संबन्ध है। नित्य शब्द समय समय के यथापूर्वक स्फोट होता है। शब्द शब्द में दिव्य और अपूर्व शक्ति होती है। इसी शक्ति से यथापूर्वक 'विचार-सृष्टि' की उत्पत्ति होती है। जैमिनि ऋषि ने यह भी बताया कि मन (शरीर), इंन्द्रिय और अन्दर का संबंध ही बंधना है, तथा उसका विलय ही मोक्ष है। और आगतान होगा। ऋषि ने यह भी बताया कि वाक्यों के द्वारा जो बोध (ज्ञान) उस वाक्यार्थ बोध उग या शब्द बोध कहते है। वाक्य भी आख्यांत (narrative) ही होता है।

7. महर्षि बादरायण (पांचवी शताब्दी ई. पू.) ने ब्रह्मासूत्र की रचना किया था । ऋषि के अनुसार द्वैत मन की स्थिति से मन को अद्वैत स्थिति में लाने पर 'ब्रह्मत्व' का अनुभव मनुष्य कर सकता है। ऋषि के द्वारा मीमांसा (अनुसंधान, गंगीर, विचार, शोध, खोज) को उत्तर मीमांसा कहते है या वेदांत दर्शन कहते हैं। ऋषि के रचना का मुख्य उद्देश्य या लक्ष्य मनुष्य को मोक्ष प्राप्ति कराना है। मनुष्य को मोक्ष =मन + क्षय, अर्थात मन का लय होने पर मुक्त होने को अनु‌भूति होती है।

इस लेख में, हम लोगों ने सप्त ऋषियों के अनुभव और विचार के बारे में सुना, सम‌झा और सीखा है। प्राव्य ऋषियों ने अपने-अपने गहन शोध के माध्यम से मन का विज्ञान के प्रयोगात्मक प्रणाली को पुष्ट 'मन के सिद्धांतों' को प्रदान करके किया है। प्रत्येक ऋषि द्वारा द्वारा दिये गये मन के सिद्धांत इस प्रकार है:-

1. मन प्रकृति का अंश है। प्रकृति के तीन गुण है- तम, सत और रज है। तीनों गुणों की साम्यावस्था को प्रकृति कहते गुणों के सहायता से, मन कैसे क्रिया? या कैसे कार्य करता है । इसका चित्रण और व्याख्या कर सकते हैं।

2. मन के तीन आधार स्तम्भ है. - बुद्धी (Logic), चित (memory) और अहंकार (identity) है। मन को योग में लाने का मतलब है कि मन को सहज भाव में स्थापित करना है, जिमसे मन सम और शांत होता है। । मन के योग की तीन विधियाँ है-ज्ञान, भक्ति और कर्म है। इन विधियों का प्रयोग कर के व्यक्ति स्वयं के अतः और स्वयं से बाहय जगत में सामंजस्य करने की कला को सीखकर के जीवन को संजो सकता है। सजा सकता 

3क) मन के द्वारा इंदियों और आत्मा के सहयोग या संयोग से

प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त होता है।। 

3ख) मन एक द्रव्य है। और नित्य है। मन प्रत्येक व्यक्ति में भिन्न- भिन्न है।

3ग) मन के आठ गुण है- संख्या, परिमाण, पृथक, संयोग, खण्ड-खण्ड (विभाग), परत्व, अपरत्व और संस्कार है।

4क) मन अतिसूक्ष्म अन्य है। यह एक व्यक्तित के शरीर में एक ही होता है। इस मन का संयोग विभिन्न प्रकार की पंच इंदियों से होता है। मन आत्मा के साथ अतः हृद‌य में वास करता है। मन विशिष्ठ इंद्रिय है। 

4ख) मन को मन के कृत्यों (function) द्वारा अनुमानित कर सकते हैं। क्योंकि, मन का सीधा प्रत्यक्ष दर्शन नहीं होता है।

4ग) मन के आठ प्रकार के कृत्य है- स्मरण, अनुमान, अनु‌भूति (शाब्दिक या मौखिक या Verbal), सहज (ज्ञान या बोध), स्वप्न, चिन्ता (परिकल्पन या अटकलबाजी) और आंतरिक धारणा (सुख-दुख, इच्छा, क्लेश) और संसय है। इन आठ प्रकार के मन के कृत्यों द्वारा मन का होना ( presence) सत्यापित होता है। 

4घ) मन के आठ कृत्य, मन की उपस्थिति के साथ-साथ, प्रत्येक कृत्य अलग-अलग एकात्मक ज्ञान का सत्य बोध कराता है। मन के एक कृत्य की अनुभूति एक बिन्दु समय (पल) में होता है।

4ड़) मन हृदय में आत्मा के निकट वास करता है। आत्मा और पंच इंद्रियों के बीच मन मध्यस्था करता है। मन से ही अतःअवस्या के विचार, अनुभूति और इच्छाओं का बोध होता है।

5क) मन, जब सम या समत्व या समता, या समाधि में आ जाता है, तब चित पर उपस्थित समस्त वृत्तियों का निरोध हो जाता है। 

5ख) मन को सम भाव में लाने के लिए अभ्यास, वैराग्य और ध्यान ही मुख्य साधन है।

6. मन, इन्द्रियों और शब्द के संबंध से समय-समय में यथापूर्वक "विचार-सृष्टि" की उत्पत्ति विस्फोट या स्फोट द्वारा वाक्य के रूप में बोध अथवा ज्ञान प्राप्त होता है। इस प्रक्रिया द्वारा उत्पन्न वाक्य को आख्यांत (narrative) कहते है। इस आख्यांत में उपयोग किये गये शब्द और अर्थ के बीच नित्य संबंध होता है। इसलिये शब्दों द्वारा रचित वाक्य से प्रकट अर्थ को वाक्यार्थ बोध या शब्द बोध कहते हैं। 

7क) मन की दो प्रकार की स्थिति होती है- द्वैत मन की स्थिति और अद्भुत मन की  स्थिति कहलाता है।

7ख) अद्वैत मन की स्थिति में,  मन की अवस्था लय की होती है तथा मनुष्य को मोक्ष की अनुभूति होती है।

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