शरीर और मन

 प्र. १ शरीर और मन में क्या सह-सम्बंध है?

उ.१ जब तक हमारा मन पूर्णरूप से स्वस्थ नहीं रहेगा , तब तक शरीर के कायाकल्प का प्रयास अधूरा ही रहेगा। सही अर्थों में शरीर तो एक दर्पण होता है , जिसमें हमें अपने मन की झलक दिखाई देती है।

प्र.२ मन की मुख्य भूमिका क्या है?

उ.२ मन का प्रमुख स्वभाव है उसकी चंचलता। हमारा मन या तो अतीत की स्मृतियों में खोया रहता है या फिर भविष्य की कल्पनाओं के आकाश में दिशाहीन पंछी की तरह इधर-उधर भटकता रहता है। 

इसे हम अपने चिंतन का अधूरापन ही कह सकते हैं। अर्ध अतीत व अर्ध कल्पना के बीच भटकता मन अनिश्चितता और अस्थिरता के कारण व्यग्र हो जाता है। जब हमारा मन व्यग्र हो तब हम लोग  मन से शांति , सुख , आनंद की अपेक्षा नहीं कर सकते। थका-थका , बुझा-बुझा , उदास मन कभी भी हमें प्रेरित नहीं कर सकता। स्फूर्त नहीं बना सकता। हमारा व्यग्र मन जीवन को नरक सा बना देता है। दु:ख , कुंठा , घृणा , अवसाद ,अज्ञान भय से भरा मन व्यग्र मन कहलाता है। इस पहलू में जहां आनंद की कोई किरण दूर-दूर तक नजर नहीं आती। इसके विपरीत  पहलू में जहां जोश , उमंग , उत्साह , स्फूर्ति होती है। वहीं जीवन आनंद से परिपूर्ण और स्वर्ग होता है।

प्र.३ हमारा मन खिला-खिला कैसे रहे ? 

उ.३ इसके लिए हमें *मन का विज्ञान* समझना होगा। डॉ. मिश्र ने मन पर शोध कार्य किए हैं , *डॉट/DOT* नामक मनोयंत्र  का आविष्कार किये  है तथा इन्होने मन का पुन: कायाकल्प कर आनंदपूर्वक जीने का मार्ग भी खोजा है। 

डॉ. मिश्र, मन पर शोध के निष्कर्ष को प्रकाशित किया है कि एकाग्र मन खंडित नहीं होता तथा ऊर्जावान बनाता है। मन को एकाग्र बनाने की प्रक्रिया ही उसका कायाकल्प है। भटकते मन को वर्तमान में लाना ही उसका नया जीवन है। इस प्रक्रिया को मन का पुन: कायाकल्प करना कहते है।

कायाकल्पित मन वाले व्यक्ति का ही जीवन स्वर्ग समान होता है। 

*डॉट/DOT* द्वारा मन का कायाकल्प करके अपने जीवन को आनंदमय स्वर्ग सा बना सकते हैं।

प्र. अपने जीवन को बेहतर एवं गुणवत्तापूर्ण कैसे बनाऐ?

उ. आपको अपने जीवन में बेहतर गुणवत्ता लाने के लिए मन की प्रकृति और कार्य-प्रणाली पर ध्यान देना चाहिए। 

मन एक स्वचालित संज्ञानात्मक घटना है। मन मुख्य कार्य मानसिक पटल पर सूचनाओं को अवशोषित करना, ज्ञान का प्रसार करना और कर्म का नेतृत्व करने है। हमारा कर्म, कथन और शब्द ही हमारे जीवन की गुणवत्ता का निर्धारण करते हैं। 

आत्म-दर्शन द्वारा मन की सभी बाधाओं से मुक्ती मिलती है। मन के परिणाम में प्राकृतिक परिवर्तन सहज ही सम्भव होता है। 

आप *डॉट/DOT* पर मन का मनोवैज्ञानिक प्रयोगात्मक अध्ययन करके अपने:

१. मन का सहज ही मानसिक पटल मूल्यांकन कर सकते है। 

२. मन को अनुभव में सत्यापित और स्थापित कर ज्ञान प्राप्त कर सकते है। 

३. जीवन को बेहतर एवं गुणवत्तापूर्ण बना सकते है।

प्र. ध्यान और एकाग्रता मन से सम्बंध क्या और कैसा है?

उ. आम गलत धारणा है कि ध्यान मन की एकाग्रता होता है और इसे प्राप्त करने के लिए विभिन्न तकनीकों को सिखाया जाता है। ध्यान मन का प्रबंधन है। मन को नियंत्रित करने के लिए हालांकि कोई प्रयास नहीं किया जाता है, इससे परे जाने का विचार होता है। ध्यान की कोई तकनीक नहीं है। एकाग्रता के लिए तकनीकें हैं। एकाग्रता मन और ध्यान की वस्तु के बीच एक मानसिक व्यायाम है। लेकिन ध्यान न तो कोई मानसिक व्यायाम है और न ही कोई अभ्यास। ध्यान मन से ही परे एक प्रत्यक्ष और प्राकृतिक प्रक्रिया है। ध्यान एकाग्रता नहीं है, यह एकाग्रता की जननी है।

*एकाग्रता* एक मनोकृत्य ईकाई है। यह वहाँ होती है जहाँ कोई विचारों को नियंत्रित करने का प्रयास करता है, जहाँ विचार स्वाभाविक रूप से विचलित हो जाते हैं, आपकी एकाग्रता, स्मृति, इच्छा, सही सोच और फिटनेस की शक्तियों को बढ़ाते हुए। जब आपका विचार बाधित होता है - जिसका मतलब है कि सभी विचार एक ही वस्तु पर तय हैं - यह एकाग्रता है। लेकिन जब प्रवाह निर्बाध होता है तो यह ध्यान है। ऐसा तब होता है जब विचार किसी एक ही वस्तु पर तय नहीं हैं, बल्कि हम एक गैर कर्ता रहते हैं और विचारों को सीधे किसी निर्णय, विश्लेषण, भागीदारी, दृश्य, कल्पना, चिंतन, दमन, निंदा या एकाग्रता के बिना एक तटस्थ ऊर्जा के रूप में देखते हैं। 

*ध्यान* एक अकृत्य ईकाई है जहाँ आप बस दृष्टा हैं, एक गवाह, आप मन की घटनाओं के एक पर्यवेक्षक हैं। देखना हमारा वास्तविक स्वरूप है। यह एक प्राकृतिक, गैर कृत्य अवस्था है। देखने के लिए किसी प्रयास की आवश्यकता नहीं है। हम सब में अपने भीतर देखने की शक्ति है और साथ ही हमें 'तीसरी आँख' की शक्ति प्राप्त है। ध्यान मन का प्रबंधन है। ध्यान घर पर वापसी है। ध्यान मन का प्रबंधन है। यह मन को शांत होने को मजबूर नहीं करता है। यह उस शाँति को पाने के लिए है जो वहाँ पहले से ही है।

ध्यान एक गवाह, एक तटस्थ ऊर्जा के रूप में मन को देखना है। यह मन की पेचीदगियों और कृत्यों के साथ हस्तक्षेप करना नहीं है। बस एक द्रष्टा बने, एक गवाह बने। हम सिर्फ अपने स्वयं के स्त्रोत में रहते हैं, अपने वास्तविक स्वरूप आनंद मे होते है।

मन का विज्ञान ही मन के प्रबंधन की वास्तविक कुंजी है।मन चंचल है। अज्ञानता वश, मन को नियंत्रित करना बहुत मुश्किल होता है। फिर भी ज्ञान प्राप्तकर मन को स्थिर और शांत करना संभव है। 

आप में लौकिक शक्ति चेतना को विकसित करती है जिसे चित्त के रूप में जाना जाता है। इस चित्त के तीन भाग --बुद्धि, मन और अहंकार होते हैं। ये सभी चेतना में बैठे हैं। 

मन बिल्कुल बीच में है और इसलिए यह एक दोहरी भूमिका निभाता है। मन का दोहरा कार्य पूर्णता के साथ खत्म होता है। जिससे आपका मन स्थिर और शांत हो जाता है।

*डॉट/DOT* पर अपने स्वयं का अध्ययन करें, लिपियों, शब्द और वाक्य को पढ़े, ताकि आप अपने विचारों, गुणों और व्यवहारिक पैटर्नों को समझ सकें। इसके लिए ही *डॉट/DOT* हैं, जिससे स्वयं, मन या मानसिक धरा को वैज्ञानिक परख दृष्टि द्वारा समझा जा सके।

प्र. हमारा मन कैसे काम करता है? कैसे सिर्फ एक विचार दर्द, पीड़ा, जलन, अविश्वास, शक, खुशी ला सकता है? 

उ. आपको अपने अंदर से जोड़ने की कला को सीखने की जरूरत है। जो केवल *डॉट/DOT* के माध्यम से संभव है।किसी जीवित प्रबुद्ध गुरु से *डॉट/DOT* को सीखने की जरूरत है। क्योंकि गुरु की प्रदीप्त उपस्थिति मे अंतःकरण मे चेतना क्षेत्र पैदा करती है। जो साधकों के लिए *डॉट/DOT* पर आसानीे से *मन के विज्ञान* को कला-कौशल द्वारा ग्रहण करना सरल और सुलभ हो जाता है।

प्र. सुख या दुःख का अनुभव क्यों होता है?

उ. जब हमारा मन जुड़ता है, तभी सुख या दुःख का अनुभव होता है। जब घटना के साथ मन जुड़ता है, प्रियता और अप्रियता के संवेदन की अनुभूति जुड़ती है तब अकस्मात् सुख या दुःख का अनुभव होता है। सुख और दुख का संबंध मन में उठने वाले भावों और कल्पना से अधिक होता है। उसमें किसी पदार्थ और परिस्थिति की उतनी भूमिका नहीं होती। अगर सुख-दुख का पदार्थों से कोई लेना-देना होता तो एक ही पदार्थ से कभी सुख और कभी दुख का अनुभव नहीं होता। परिस्थितियों के संबंध में भी यही बात सत्य प्रतीत होती है। आखिर क्यों एक ही परिस्थिति किसी को सुखी और किसी को दुखी बनाती है?

हमारे दुःख का मूल परिस्थिति नहीं है, पदार्थ नहीं है, घटना नहीं है। ये सब निमित्त बन सकते हैं। किन्तु जहां सुख और दुःख पैदा होता है वह सारा चेतनाशक्ति की अनुभूति में पैदा होता है। हमने अनुभूति को निकाल दिया। केवल परिस्थितिवाद और घटनाचक्र, केवल पदार्थ पर सारा आरोपित कर दिया जाता है। 

यह स्पष्ट है कि सुख-दुख कहीं बाहर से नहीं आते और हमारे मन की अवस्था से उनका निर्धारण होता है, इसलिए हमें मनोभावों के सुधार और बदलाव पर विशेष ध्यान देना चाहिए। जब तक *मिथ्यादृष्टि* समाप्त नहीं होती, तब तक दुःख के कारणों को समाप्त नहीं किया जा सकता।*मिथ्यादृष्टि* का सहज निराकरण और निवारण *डॉट/DOT* पर सरल और सुलभ है।

प्र. निरंतर सफलता और सुख कैसे प्राप्त होता रहे? क्या हैै इसका सूत्र?

उ. हर व्यक्ति चाहत है कि उसे निरंतर सफलता और सुख मिलता ही रहे। यह सम-भाव में सम्भव है। यदि सहज भाव से जीना सीख लें , तो जीवन में आने वाले बहुत सारे दुख अपने आप ही कम हो जाते हैं। यह दुविधा से परे की मनःस्थिति है।दुविधा मानसिक पटल पर घटना है। जय-पराजय , सुख-दु:ख , सफलता-असफलता , आशा-निराशा तो जीवन में धूप-छांव की भांति आते-जाते रहते हैं। आशा के साथ निराशा , सफलता के साथ असफलता , जीवन के साथ मृत्यु , घटना के साथ दुर्घटना जुड़ी होती है। अपने अन्दर के वैज्ञानिक को जाने और पहचाने। जिससे आप प्रतिकूल परिस्थितियों का भी बहुत ही धैर्य से मानसिक स्तर पर सामंजस्य से संतुलन स्थापित करना चाहिए। यदि हम इन छोटी-छोटी बातों का ध्यान और एकाग्रता *डॉट/DOT* पर रखेंगे , तो अपने मन की शक्ति और मस्तिष्क की अपार क्षमता को अपने अनुकूल बना सकेंगे। ये मंगलमय सूत्र आपके जीवन को सुखमय व आनंदमय बना देंगे।


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